यह कैसी घड़ी है
विश्व विनाश की कगार पर खड़ा है
और सबको अपनी अपनी पड़ी है
यह कैसी मुश्किल की घड़ी है!
स्वार्थ में अँधा हो चले जा रहा है
बस अपने लिए तू जिए जा रहा है
पितृ -ऋण,मातरी-ऋण,पत्नी-ऋण,पुत्र -ऋण
जाने कितने ही ऋणों को चुकाया है तूने
पर क्यूँ इस धरा ऋण को समझा न तूने
घुट्ती मानवता अधर में खड़ी है
यह कैसी मुश्किल की घड़ी है!
यह तूफ़ान सबको मिटा देगा आकर
बारूद के धुएं सब जला देंगे छा कर
विश्व को बचाने आये हैं सतगुरु
देख ज़रा संकुचित दायरों से निकलकर
घरोंदों से निकल देख राहों में चलकर
यह परमार्थ का मार्ग है बड़ा आनंदकर
जो सुख मिलेगा दूसरों को सुख देकर
वोह सुख न मिलेगा घरोंदों में रहकर!
आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपकी प्रतिक्रियायों की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
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